दलहन उत्पादन :स्थिति, समस्याएं एवं सुझाव

लेखक द्वय 
डा .योगेन्द्र प्रताप सिंह 
एवं 
डा.रणजीत सिंह

भारत में दलहन उत्पादन की स्थिति

भारत में दलहनी फसलों का कुल क्षेत्रफल पिछले चार दशकों में 23-24 मिलियन हेक्टेयर के बीच स्थिर रहा है। इनमें चना, मटर, अरहर, मंसूर, लोबिया, मूंग, एवम् कुल्थी का विश्व के कुल उत्पादन का 40-80 प्रतिशत भाग भारत में पैदा होता है। भारत में दलहनी फसलें खरीफ एवम् रबी दोनों ही मौसम में उगाई जाती हैं। कुल उत्पादित दलहन का 45 प्रतिशत खरीफ तथा 55 प्रतिशत क्षेत्रफल रबी में आता है जबकि खरीफ, रबी और जायद में क्रमशः कुल उत्पादन का 30 प्रतिशत, 64 प्रतिशत और 6 प्रतिशत पैदा होता है। क्षेत्रफल की ही भाँति पिछले चार दशकों में कुछ असामान्य वर्षों को छोड़कर भारत में दलहन उत्पादन 11-13 कुन्तल के मध्य रहा। देश में सिंचाई सुविधाओं के विकास के साथ ही दलहनी फसलों के स्थान पर अधिक लाभदायक नकदी या खाद्यान्न की फसल उगाने की प्रवृत्ति प्रायः सम्पूर्ण देश में समान रूप से विद्यमान रही है। इसके साथ ही सिंचित क्षेत्रों में जायद के मौसम में दलहनी फसलें उगाए जाने के कारण दलहन के अन्तर्गत क्षेत्र एवम् उत्पादन में स्थिरता बनी रही। हर्ष का विषय है कि वर्ष 2002-04 में भारतवर्ष में 13 मिलियन टन की लक्ष्मण रेखा को पार करके दलहन का कुल उत्पादन 15.23 मिलियन टन रहा, एक कीर्तिमान है। 

     भारत में विश्व के दलहन का कुल 36 प्रतिशत क्षेत्रफल स्थित है तथा कुल 29.3 प्रतिशत दलहन का उत्पादन होता है। किन्तु यहाँ की औसत उपज अन्य देशों (नीदरलैण्ड 32.86, न्यूजीलैण्ड 32.10, पश्चिम जर्मनी 28.66, ब्रिटेन 25.65 कु./हे.) की अपेक्षा बहुत कम (5.44 कु./हे.) है। भारतवर्ष में दलहन उत्पादक क्षेत्र के आधार पर क्रमशः मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश तथा महाराष्ट्र का प्रमुख स्थान है, जबकि उत्पादन के दृष्टिकोण से क्रमशः उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा महाराष्ट्र का स्थान प्रमुख है। इसी प्रकार प्रति हेक्टेयर औसत उपज क्रमशः पंजाब, उत्तर प्रदेश, व बिहार, जम्मू व कश्मीर तथा पश्चिम बंगाल में अधिक होती है। भारतवर्ष में उत्पन्न की जाने वाली दलहन की फसलों में चना, अरहर, उर्दू, मूंग, कुत्थी, मोथ, खेसारी एवम मसूर का प्रमुख स्थान है।
विश्व कृषि संगठन (FAO) तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मानक के अनुसार निरामिष भोज्य पद्धति में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 104 ग्राम दालों का उपयोग आवश्यक माना गया है, परन्तु भारत में इनकी उपलब्धता 75 ग्राम (1958-59) से घटकर (1995-96) 45.03 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन हो गई है। भारत में दालों की उपलब्धता के घटाव का क्रम निरन्तर जारी है। परिणामतः भविष्य में मानव पौष्टिक आहार हेतु खाद्यान्न एवम् दलहनी फसलों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता है। अन्न-दलहन उत्पादन अनुपात जो 1960-61 में 5.46:1 था, घटकर 2003-04 में 14.38:1 तक आ गया। इस प्रकार देश में दलहन उत्पादन की दिनों-दिन गिरी स्थिति कृषि वैज्ञानिकों के लिए चिन्ता का विषय बनी हुई है।

भारत में दलहन उत्पादन में कमी के कारण

जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि पिछले चार दशकों के क्षेत्रफल और उत्पादन में लगभग स्थिरता की प्रवृत्ति विद्यमान है। यह स्थिरता मुख्य रूप से अधिक उपज देने वाली, अल्पकालिक, रोग अवरोधी जातियों के अभाव तथा अपर्याप्त मृदा - नमी वाली सीमान्त उर्वरता की भूमियों में असिंचित कृषि पद्धति एवम् उपेक्षित फसल-प्रबन्ध द्वारा खेती किए जाने के कारण ही है। दल फसलों के कम उत्पादन के कारणों में जलवायु की स्थिति, उत्पादन प्रविधि, कटाई के उपरान्त की कृषि-क्रियाओं की जटिलता, अपर्याप्त आधारभूत अनुसंधान कार्य, उत्तम किस्म के बीजों का अभाव तथा सामाजिक एवम् आर्थिक कारणों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

(1) भूमि एवम् जलवायु सम्बन्धी स्थितियाँ

     भारत में लगभग 92 प्रतिशत दलहनी फसलें असिंचित अवस्था में उगाई जाती हैं। चूँकि कुल उत्पादित दलहन का 64 प्रतिशत भाग रबी में तथा 30 प्रतिशत भाग खरीफ एवम् 6 प्रतिशत जायद के मौसम में पैदा होता है। इस प्रकार रबी के मौसम में ये फसलें क्रांतिक मृदा-नमी की स्थिति में पैदा की जाती हैं। सिंचाई के साधनों के विस्तार के बावजूद हमारे यहाँ 7-9 प्रतिशत दलहन की सिंचित खेती होती है। इस तथ्य के विपरीत देश में दलहनों से संबंधित जो भी अनुसंधान कार्य किए गए, वे सिंचित अवस्था के
आधार पर थे ।अतः आशानुकूल लाभ नहीं मिल पाया। अतएव वर्तमान संदर्भों में दलहन विकास हेतु आधारभूत अनुसंधान कार्यों को असिचित अवस्थाओं हेतु किए जाने की आवश्यकता है।


      देश के पूर्वी भाग में अधिक वर्षा के कारण पश्चिमी भाग की अपेक्षा अधिक आता रहती है, जो दलहन उत्पादन हेतु उपयुक्त नहीं है। परिणामत पूर्वी भाग में कोट-पतंगो, रोग-व्याधियों एवम् खतरों के प्रकोप के कारण उत्पादन कम होता है। इसके विपरीत पश्चिमी भाग की हल्की भूमियों में मुद्रा-नमो तथा आवारा पदार्थ के अभाव के कारण फसल की अच्छी वृद्धि नहीं हो पाती है। चूंकि मुख्य रूप से की फसल उत्पन्न की जाती है. ओ अधिक तापक्रम शाम नमी की कमी के कारण फूलों एम फतियों के झड़ने के कारण कम उपज देती है। देश के मध्य एवम दक्षिण क्षेत्र में यद्यपि उत्पादन की अपेक्षाकृत अनुकूल स्थिति रहती है और यहाँ की अच्छी वानस्पतिक वृद्धि भी होती है। परन्तु फसल के अन्तिम जीवनकाल में मुदा नमी के अधिक के कारण अच्छा उत्पादन नहीं मिल पाता है। उत्तर भारत में रखी के मौसम में फसलों में कुहरे, पाले एवम् रात्रि के तापक्रम के अधिक मिल जाने के कारण उ मिलती है। अधिका क्षारीयता से अधिक होती है, जो भारो का अपना सिंचाई के फल पानी के एक-दो दिन में रुकने के कारण प्रायः नष्ट हो जाया करती है। उच्च-अलस्तर वाली भूमियों दलहन की उपयुक्त नहीं होती। इस प्रकार प्रतिकूतावरण सम्बन्धी परिस्थितियों को सहन कर पाने के कारण किसान दलहन की कम उर्वरताको असिचित भूमियों में करता है। अधिक नमीयुक्त सिंचित भूमियों में अधिक वानस्पतिक वृद्धि के कारण इन फसलों में फल-फूल कम आते हैं। यही कारण है कि किसान दलहन की खेती सिंचित भूमियों में करना पसंद नहीं करता है।

(2) अधिक उपज देने वाली प्रजातियों का अभाव (Non availability of high yielding varietics)

     सदियों से न्यूनतम फसल-प्रबन्ध द्वारा असिंचित कम उर एवम् अपर्याप्त मृदा नमी की स्थिति में निरंतर उगाई जाती रहने के कारण दलहनी फसलों का प्राकृतिक विकास (Evolution) कुछ इस प्रकार हो चुका है कि अत्यन्त खराब स्थिति में भी थोड़ा उत्पादन दे देती है। प्राकृतिक विकास की इस प्रक्रिया में विभिन्न दलहनी फसले वंशानुगत उत्पादन क्षमता को न्यूनतम स्तर पर बनाए रखते हुए जीवित बचे रहने के प्रति अनुकूल (adoption) हो चुकी हैं। इन फसलों में अत्यधिक वानस्पतिक वृद्धि, कम उत्पादकता, फूलों एवम् फलों का झड़ना, अधिक लम्बा जीवनकाल आदि विशेषताएँ अत्यन्त प्रतिकूल प्राकृतिक परिस्थितियों में दलहनी के जो खेत बचे रहने हेतु अनुकूलन के ही प्रतिफल हैं। अतएव वर्तमान समय में ऐसे पौधे की आवश्यकता है जो नवीन कृषि पद्धति में अधिकतम उत्पादन देने वाले गुणों से परिपूर्ण हो।

      वर्तमान सन्दर्भों में दलहन का मात्र एक ऐसा पौधा ही आवश्यक नहीं है, जिसमें सौर ऊर्जा को जैविक उत्पाद में परिवर्तित करने की अधिक क्षमता हो, बल्कि यह भी आवश्यक है कि नवीनतम प्रजातियाँ वातावरण के प्रति अनुकूलित होनो के साथ ही कम नमी, कम उर्वरता एवम् सीमान्त फसल-प्रबन्ध की स्थिति में अच्छा उत्पादन देने में समर्थ भी हों। साथ ही इनमें मिश्रित खेती एवम् सहफसली खेती में उग पाने की प्रतिस्पर्द्धात्मक क्षमता भी हो। इस प्रकार विभिन्न जलवायु एवम परिस्थितिकीय (Ecologi cal) परिस्थितियों में पौधे की वृद्धि को प्रभावित करने वाली दैहिक क्रियाओं (Physiological activities) के पर्याप्त ज्ञान के अभाव में सम्पूर्ण विस्तार क्षेत्र हेतु किसी प्रजाति की परिकल्पना अनावश्यक होगी। हाल ही में दलहनी फसलों की संस्तुत नवीनतम प्रजातियाँ मध्यम लागत अवस्था हेतु उपयुक्त रहीं। परिणामतः ये कृषकों के यहाँ सफल नहीं हो सकी।

   भारतवर्ष में दलहनी फसलों की मिश्रित खेती एक महत्वपूर्ण शस्य वैज्ञानिक पद्धति रही है। इस प्रकार उगाई जाने वाली फसल या तो घटक फसल (Component crop) की क्रियाशील वृद्धि के पूर्व अपना जीवनकाल समाप्त करती है अथवा उसकी कटाई के उपरांत क्रियाशील वृद्धि की स्थिति में आती है। कभी-कभी दोनों घटक फसलें साथ भी बढ़ती हैं। अतएव अलग-अलग परिस्थितियों में उगाए जाने हेतु अलग-अलग प्रजातियों की पहचान करनी आवश्यक है। दुर्भाग्यवश हमारे देश में इस दिशा में न तो कोई प्रयास किया गया और न ही उपर्युक्त परिस्थितियों हेतु विभिन्न विस्तार, ऊँचाई, जीवनकाल, प्रकाश की स्थिति एवम् विभिन्न फसलों के प्रतिस्पर्द्धा में अच्छी वृद्धि एवम् उत्पादन देने वाली प्रजातियों की साथ पहचान ही की जा सकी है। इसी प्रकार दलहनों की रोग-व्याधि, कीट व्याधि, पाला, कुहरा, सहिष्णु, छोटे जीवनकाल की, बाँझपन रहित, एक साथ पकने वाली फलियाँ तथा अधिक उपज देने वाली ऐसी किस्मों को विकसित करने की आवश्यकता है, जो अन्न की फसलों के साथ आर्थिक उत्पादन में प्रतिस्पर्द्धा कर सकें। किसी फसल के उत्पादन में अच्छे बीज का सर्वाधिक महत्व है। यद्यपि दलहनों की अनेक उन्नतिशील जातियाँ विभिन्न अवस्थाओं हेतु विकसित की गईं, परन्तु उनके बीज किसानों को न तो वितरित किए जा सके और न ही बीज सम्बर्धन एवम वितरण की अब तक कोई उपयुक्त व्यवस्था ही की जा सकी है।
 (3) उचित शस्य-प्रबन्ध का अभाव (Lack of proper Agronomic practices)

चूँकि हमारे यहाँ दलहनी फसलों को ऐसी भूमियों में उगाया जाता है, जो हर प्रकार से अन्य फसलों हेतु उपयुक्त नहीं होतीं, फिर भी उपयुक्त नमी एवम् शस्य वैज्ञानिक प्रविधि के माध्यम से दलहनों की अच्छी उपज की पूर्ण सम्भावना विद्यमान है।

(क) प्रोटीन की बहुलता के कारण दलहनी फसलों के लिए प्रति इकाई उत्पादन हेतु खाद्यान्न की फसलों की अपेक्षा अधिक ऊर्जा आवश्यक होती है, परन्तु इसके विपरीत इन फसलों को कम ऊर्जा प्रदान करने वाली मध्यम व निम्न उर्वरता की भूमियों में उगाया जाता है।

(ख) सामान्यतः राइजोबियम कल्चर दलहन की खेती का सस्ता और अधिक लाभदायक लागत माध्यम है, जिसके लिए उचित प्रकार के राइजोरियम की किस्मों का निषेचन आवश्यक है। विभिन्न फसलों हेतु उचित प्रकार के कल्चर सुविधापूर्वक कृषकों को उपलब्ध नहीं हैं। कभी-कभी बाजार से नकली और कालातीत (Expired) कल्चर किसानों को उपलब्ध होते हैं, जिनके प्रयोग से वांछित लाभ नहीं मिल पाता। परिणामतः इसके प्रयोग के सम्भावित लाभ से किसान का विश्वास उठ जाता है।

(ग)  किसी फसल में सामयिक बुआई का उत्पादन से गहरा संबंध है। प्रायः असामयिक एवम् विलम्ब से बुआई किए जाने के कारण दलहनों में कीड़े-मकोड़े तथा रोग-व्याधियों के प्रकोप तथा फसल की परिपक्वता की अवस्था में उचित वातावरण न मिलने के कारण उपज में भारी कमी आ जाती है।

(घ) प्रायः दलहनी फसलों में उचित बीज-दर का प्रयोग न किए जाने से अपर्याप्त पौध-घनत्व के कारण कम उत्पादन मिलता है। उदाहरणस्वरूप उर्दू, मूंग, अरहर में 20-25 किग्रा./हे. के स्थान पर किसान 10-15 किग्रा. बीज-दर का प्रयोग करता है।

(ङ) मुख्यतः इन फसलों की बुआई छिटकवाँ विधि से की जाती है। परिणामतः सम्पूर्ण खेत में बीजों का वितरण समान रूप से नहीं हो पाता है। इसके साथ ही कुछ बीज ऊपर रहते हैं, जिन्हें या तो चिड़ियाँ खा जाती हैं या नमीके अभाव के कारण नहीं उग पाते तथा कुछ गहरााई पर पड़ने के कारण अंकुरित नहीं हो पाते, जिससे खेत में कम पौध-घनत्व के कारण उपज घट जाती है।

(च)  दलहनी फसलों में रोग-व्याधियों का प्रकोप अधिक पाया जाता है। कभी-कभी इनके प्रकोप से सम्पूर्ण फसल नष्ट हो जाया करती है।



(छ) प्रारम्भिक वृद्धिकाल में मंद वृद्धि के कारण दलहनों की खरपतवारों से अधिक हानि होती है। विभिन्न जीवनकाल की फसलों में बुआई के 20-45 दिन बाद तक खरपतवार प्रतिस्पर्द्धा के कारण चने में 30-50 प्रतिशत, मूंग एवं उर्दू में 50-70 प्रतिशत तथा अरहर में कभी-कभी 90 प्रतिशत तक की कमी पाई जाती है। 

 (ज) अनेक प्रकार के कीट दलहनी फसलों की वृद्धि की विभिन्न अवस्थाओं में फसल को क्षति पहुँचाकर उत्पादन कम कर देते हैं।


(4) बुनियादी अनुसंधान सम्बन्धी कारक (Basic Re search Factors)

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा 1985 ई. में अखिल भारतीय दलहन विकास योजना (AIPIP) की स्थापना के उपरान्त विभिन्न अनुसंधान संस्थानों तथा राज्य कृषि विश्वविद्यालयों के माध्यम से दलहन विकास हेतु बहुआयामी अनुसंधान कार्य प्रारम्भ किया गया। इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण उल्लेखनीय तथ्य यह रहा कि आधारभूत अनुसंधान (Basic Research) सम्बन्धी कोई कार्य नहीं किया गया और यही स्थिति अब तक विद्यमान है। पिछले 40 वर्षों के गहन अनुसंधान के परिणामस्वरूप दलहनों की अनेक उन्नत प्रजातियाँ विकसित की गईं, परन्तु उनका उत्पादन वृद्धि में बहुत कम योगदान रहा। इन कारणों को हम निम्न प्रकार से वर्णित करते हैं -

(क) चूँकि दलहनी फसलें सीमांत भूमियों में कम मात्रा में उत्पादन के साधनो का प्रयोग करके उगाई जाती हैं, अतएव इस अवस्था हेतु ऐसी प्रजातियों की आवश्यकता है, जिनके पौधे कम विस्तार वाले तथा झाड़ीयुक्त होने के साथ ही अधिक प्रकाश-संश्लेषण दर और अधिक कटाई-सूचकांक (HI) वाले हों। इतना ही नहीं, पौधों की आकारकीय संरचना इस प्रकार की होनी चाहिए कि उत्पादित बायोमास (Biomass) में दाने का अनुपात वानस्पतिक भाग से ज्यादा हो । दुर्भाग्यवश संस्तुत किस्मों में इस प्रकार के लक्षण नहीं पाए जा सकें।
 
(ख)दलहन की कोई ऐसी प्रजाति नहीं विकसित की गई, जो एक साथ फले-फूले तथा सारी फलियाँ एक साथ पककर तैयार हो जायँ। अधिकतर दलहनी फसलों की अधिकांश प्रजातियों में फलने-फूलने के साथ-साथ वानस्पतिक वृद्धि का भी क्रम चलता रहता है, जिससे पहली लगी फलियों पककर दानों का झड़ना प्रारम्भ हो जाता है। इसके बचाव हेतु फलियों को बार-बार तोड़ना पड़ता है तथा कटाई के उचित समय का निर्धारण ठीक से नहीं हो पाता। परिणामतः उपज घटती है तथा उत्पादन व्यय बढ़ जाता है। दलहन की इस प्रमुख समस्या के निराकरण हेतु यथेष्ट प्रजातियाँ अब तक विकसित नहीं की जा सकी हैं।

(ग)द लहनी फसलों में फूलों और फलियों का झड़ना एक प्रमुख समस्या है, किन्तु अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि यह समस्या मुख्य रूप से फसल के कुपोषण, पौधे में हार्मोन का असन्तुलन, प्रकाश अथवा तापक्रम के प्रभाव या वातावरण की स्थिति के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती है अथवा उपरोक्त घटकों के मिश्रित प्रभाव का प्रतिफल है। इस समस्या के निदान स्वरूप पादप दैहिकी (Plant Physiological) अथवा जीव-रसायन (Bio chemistry) से सम्बन्धित अनुसंधान कार्य आवश्यक थे, जो नहीं किए गए। वास्तव में किसान प्रति पौधा अधिक फलियों वाली ऐसी प्रजाति को उगाना पसन्द करेगा, जिसमें फल-फूल झड़ने की समस्या न हो।

(घ) चूँकि दलहनी फसलें कम उपजाऊ भूमियों में उगाई जाती हैं तथा प्रायः इनकी असिंचित खेती होती है। अतएव इस अवस्था हेतु अधिक विकसित जड़ों वाली, कम से कम मृदा नमी तथा पोषक तत्व उपलब्धता पर अच्छी वृद्धि कर सकने वाली प्रजातियों की आवश्यकता है, जो अब तक विकसित नहीं की जा सकी हैं।

(5) सामाजिक एवम आर्थिक कारण (Socio-economic factors)

दलहनी फसलों के उत्पादन को प्रभावित करने वाले सामाजिक एवम् आर्थिक कारणों में शस्य वैज्ञानिक घटक, कृषि पद्धतियाँ, फसल विशेष के लक्षण आदि कारकों के मिश्रित प्रभाव का प्रमुख स्थान होता है। प्रायः इन फसलों को ऐसी भूमियों में उत्पन्न किया जाता है, जहाँ दूसरी फसलें नहीं उगाई जा सकती हैं। फिर भी इन्हें मुख्यतः मिश्रित फसल, अन्तराशस्य, आपत्तिकालिक फसल (Emergency crop or Catch crop) या अधिक उपज देने  वाली व्यावसायिक फसलों के चारों तरफ रक्षक-फसल के रूप में उगाया जाता है। इस प्रकार दलहनों को गौड़ स्थान दिए जाने के कारण इनके लिए उत्पादन के साधनों का न्यूनतम विनियोजन किया जाता है। इसके निम्न मुख्य कारण हैं-

(क)  निर्धनता के कारण प्रायः किसान उत्पादन के महँगे साधनों का प्रयोग नहीं कर पाता है। चूँकि दलहनों में लागत  लाभ अनुपात (Input-output ratio) खाद्यान की फसलों की अपेक्षा कम होता है, अतएव संस्तुत पौध-सुरक्षा व्यवस्था महँगी तथा आसानी से उपलब्ध न होने के कारण प्रयोग नहीं की जाती है। इसी प्रकार आधुनिक शस्य वैज्ञानिक पद्धतियों का भी प्रयोग नहीं किया जाता है।

(ख) विगत वर्षों में दलहन की अल्पकालिक अधिक उपज देने वाली उन्नतिशील प्रजातियों एवम् उन्नत कृषि पद्धतियों के विकास हेतु संघनित प्रयास किए गए, किन्तु नवीनतम प्रविधियों के किसानों में लोकप्रिय न हो पाने के कारण आशानुकूल उत्पादन वृद्धि नहीं हो पाई।

(ग) मुख्य निर्धारण नीति न होने के कारण किसान दलहन में अच्छी भूमियाँ फँसाना उचित नहीं मानता है। यद्यपि अन्न की फसलों की अपेक्षा दलहन ऊँचे मूल्यों पर बिकता हैं, फिर भी इन्हें आर्थिक दृष्टि से लाभकारी फसल नहीं माना जाता। चूँकि दलहन का लागत-लाभ अनुपात धान एवम् गेहूँ की तुलना में आकर्षक नहीं होता, अतएव किसान इन्हें खराब भूमियों में उगाना चाहता है।

(घ) दलहन उत्पादन की नवीन प्रविधि कृषकों के सामाजिक आर्थिक स्तर तथा खेतों के आकार को ध्यान में न रखकर उत्पादन पर आधारित है, जो दूरवर्ती क्षेत्रों में विपणन की समस्या से विशेष प्रभावित होती हैं। कभी कभी कटाई के समय के दलहन के मूल्य और बाद के मूल्य में दुगुने से भी अधिक अंतर आ जाता है।

(ङ) यद्यपि सरकार ने राष्ट्रीय दलहन विकास कार्यक्रम (NPDP) तथा विशिष्ट खाद्यान्न उत्पादन योजना के लिए फसल ऋण की व्यवस्था की है, किन्तु ऋण प्राप्त करने की लम्बी औपचारिकता के बाद भी अनेक प्रकार के बाधावरोधों के कारण समयानुसार ऋण उपलब्ध नहीं हो पाता है और किसान इन्हें लेना पसंद नहीं करता है।

(च) दलहनों की उपज के संग्रह भण्डारण तथा विपणन के लिए कोई संगठित कार्यक्रम नहीं बनाया गया है।  

(छ) निर्धनता के कारण सीमान्त एवम् लघु कृषक खरीदने या उधार लेने के चक्कर में न पड़कर सबसे पहले खाने के लिए अन्न उगाते हैं। उनका यह निश्चित मत है कि बिना अन्न के उनकी क्षुधापूर्ति नहीं हो सकती, जबकि दालों के अभाव में काम चलाया जा सकता है। इस प्रकार दलहन उत्पादन को वे विशेष महत्व नहीं देते हैं।

(6) अच्छी गुणवत्ता के बीजों की अनुपलब्धता (Non availability of good quality seeds)

पिछले कुछ वर्षों में देश में उन्नतिशील किस्म के बीजों की कमी आई है। इसका प्रमुख कारण यह है कि द्वितीय स्तर का बीज (आधार बीज) मुख्य रूप से आर्थिक छूट (Subsidy) प्रदान करके बीज उत्पादक अभिकर्ता (Agent) के माध्यम से अखिल भारतीय समन्वित दलहन उत्पादन परियोजना (AICPP) द्वारा पैदा कराया जाता है, किन्तु परियोजना में कर्मचारियों की कमी के कारण पर्याप्त मात्रा में बीज पैदा नहीं हो पाता। दूसरी ओर किसान दलहनी फसलों की कम उत्पादकता के कारण पर्याप्त मात्रा में बुआई हेतु बीज नहीं रख पाता है। कभी-कभी प्राकृतिक प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण दलहनी फसलों के नष्ट हो जाने से भी किसान के पास बीज का अभाव हो जाया करता है। इस प्रकार अच्छे एवम् सुविधा सम्पन्न किसानो को भी बुआई हेतु स्थानीय बीज भी नहीं मिल पाते हैं। दलहन उत्पादन में अच्छे किस्म के बीज की उपलब्धता उत्पादन के मार्ग की मुख्य बाधा है।

(7) दलहन की कटाई के उपरान्त की कृषि क्रियाओं से सम्बन्धित बाधाएँ (Contraints in Post Harvert Technology)

(क) चूँकि दलहनी फसलों में फल-फूल आने के साथ-साथ वानस्पतिक वृद्धि होती रहती है। इस प्रकार सम्पूर्ण पौधे में फल एक बार न आकर निरन्तर बनते, प्रौढ़ एवं परिपक्व होते रहते हैं। यह समस्या खरीफ एवम् जायद के मौसम में उगाई जाने वाली फसलों में मुख्य रूप से पाई जाती है। परिणामतः फलियों के चटककर दानों के बिखरने से बचाने के लिए बार-बार तुड़ाई करनी पड़ती है, जिसमें अधिक व्यय होता है।

(ख) इन फसलों (अरहर) में कभी-कभी बाँझपन तथा अत्यधिक वानस्पतिक वृद्धि के कारण फल-फूल नहीं लगते, साथ ही रोग एवम् कीट के प्रकोप से भी अधिक क्षति होती है। इस प्रकार इन समस्याओं के निदान हेतु पर्याप्त प्रयास का अभाव रहा है।

(ग) अन्य फसलों की अपेक्षा भण्डारण के समय दलहनों में अधिक क्षति होती है। परिणामस्वरूप किसान अधिक मात्रा में दलहन उत्पादन कर भण्डारण के समय होने वाली क्षति का जोखिम नहीं उठाना पड़ता है।

(घ) दलहनी फसलों के सुखाने, दानों की सफाई तथा दाल बनाने का कार्य प्रायः कठिन होता है। प्रायः अच्छे प्रयास के बावजूद भी दालों से पूर्ण रूप से छिलके अलग नहीं हो पाते हैं तथा केवल 70-72 प्रतिशत दाल ही मिल पाती है। किसानों द्वारा उत्पन्न की गई दाल का मूल्य छिलकों की उपस्थिति तथा पालिश के अभाव में मिलों द्वारा बनाई गई दालों की अपेक्षा बहुत कम होता है।

दलहन उत्पादन में वृद्धि के सुझाव (Suggestion for Improving Pulse Production)

जैसा कि पहले बताया गया है कि दालों का निरामिष भोजन परम्परा में विशेष योगदान होता है तथा अनेक कारणों से हमारे देश में दलहन की निरंतर घटती उपलब्धता चिन्ता का विषन बन चुकी है। इस प्रकार दलहन उत्पादन में वृद्धि हेतु निम्न प्रकार से प्रयास किया जाना आवश्यक है

(1) दलहनी फसलों के अन्तर्गत क्षेत्र को बढ़ाया जाय। 

(2) निरन्तर बढ़ती जनसंख्या हेतु दालों के साथ-साथ अन्न की फसलों का उत्पादन भी आवश्यक है। चूँकि कृषित क्षेत्र में वृद्धि सम्भव नहीं है, अतएव दलहनी फसलों का अधिक क्षेत्र पर उगाने का एकमात्र विकल्प हो सकता है कि बहुफसली उत्पादन योजना में कम समय में तैयार होने वाली दलहनी फसलों को अधिक से अधिक स्थान दिया जाय।

(3) फसलोत्पादन कार्यक्रम में दलहनी फसलों के क्षेत्रफल में वृद्धि हेतु सहचर फसल, आपत्तिकालिक फसल, मिश्रित फसल, अंतराशस्य आदि उत्पादन विधियाँ विशेष रूप से प्रयोग लाई जायँ। यह क्रिया मुख्य रूप से लम्बे जीवनकाल की फसलों जैसे गन्ना, कपास तथा अधिक फासले पर बोई जाने वाली फसलों जैसे मक्का, ज्वार, बाजरा, अरहर आदि के साथ सुविधापूर्वक प्रयोग में लाई जा सकती हैं।

(4) विभिन्न दलहनी फसलों के उन्नतिशील किस्म के बीज पैदा किए जायँ तथा बीज संवर्धन एवम वितरण की समुचित व्यवस्था की जाय।

(5) दलहनी फसलों में पौध-संरक्षण विधियों का आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जाय। 

(6) नवीनतम शस्य वैज्ञानिक विधियों से किसानों को परिचित कराया जाय तथा उन्हें प्रयोग करने हेतु प्रोत्साहन प्रदान किया जाय।

(क) दलहनी फसलों की समय से कतारों में उचित पौध-घनत्व स्थापित करते हुए बुआई की जाय।

(ख) राइजोबियम कल्चर के सम्भावित लाभ की जानकारी दी जाय तथा उचित किस्म के कल्चर को उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाय।

(ग) खरपतवार नियंत्रण की उचित समय पर व्यवस्था की जाय।

(घ) दलहनी फसलों को सीमान्त उर्वरता की भूमियों की अपेक्षा मध्यम और अच्छी उर्वरता वाली भूमियों में उगाया जाय।

(ङ) खादों को उचित मात्रा में प्रयोग किया जाय। इस हेतु फास्फोरसधारी उर्वरकों के साथ ही Ca, Ma, Co, B, Cu, एवम Zn का प्रयोग मृदा-परीक्षण के आधार पर किया जाना चाहिए।

(च) उचित समय पर उचित विधि से कटाई की व्यवस्था की जाय।

(7) दलहन उत्पादन हेतु किसानों को प्रोत्साहित किया जाय तथा उत्पादन के उपादानों जैसे खाद, बीज, पौध-सुरक्षा, रसायन एवम् उपकरण तथा शाकनाशी की व्यवस्था की जाय। इनकी लागत हेतु ऋण तथा शासकीय सहयोग (Subsidy) प्रदान की जाय। यद्यपि AICPIP, NPDP तथा SFPP कार्यक्रम के अन्तर्गत सरकार द्वारा इस प्रकार की व्यवस्था की गई है, किन्तु प्रचार-प्रसार के अभाव के कारण इनसे किसान लाभान्वित नहीं हो सका है।

(8)  दलहनी फसलों की अधिक उपज देने वाली प्रजातियाँ विकसित की जायँ तथा उनके बीजों को किसानों को उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाय।
 
दलहनी फसलों में उत्पादन वृद्धि हेतु निम्न गुणों की प्रजातियाँ आवश्यक होंगी--

(क) कम समय में तैयार होने वाली हो । •

(ख)  वांछित प्रजाति का वानस्पतिक विस्तार कम हो तथा अधिक फलियों वाली हो ।

(ग) अधिक खाद एवम नमी की स्थिति में अच्छा उत्पादन देने में समर्थ हो ।

(घ) वांछित प्रजाति में फूल और फलियों के गिरने का दोष कम से कम हो।

(ड़) दलहन की ऐसी प्रजाति आवश्यक होगी, जो तापक्रम एवम् प्रकाश के प्रति असंवेदनशील हो।

(च) जल भराव, पाला, कुहरा आदि प्राकृतिक एवम् वातावरण की स्थिति से अप्रभावित रहने वाली हो

(छ) बाँझपन या अत्यधिक वानस्पतिक वृद्धि (Luxurient Vegetative growth) का दोष न पाया जाता हो तथा फसल में क्रमवार फल-फूल आने का दोष न पाया जाता हो।

(ज) दलहन की वांछित प्रजाति में कीटों एवम रोग-व्याधियों का प्रकोप कम से कम पाया जाता हो तथा अधिक उपज देने वाली हो।

(झ)सूखा सहन करने की पर्याप्त क्षमता हो तथा उसमें पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में विद्यमान हो ।

(ज) दलहन की प्रजाति ऐसी हो जो प्रकाश की विभिन्न स्थितियों में विभिन्न फसलों के साथ घटक फसल के रूप में अच्छी वृद्धि एवम् उत्पादन देने में समर्थ हो।

(9) दलहनी फसलों के लिए भी उचित मूल्य निर्धारण नीति बनाई जाय तथा विपणन की उचित व्यवस्था की जाय।

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