फसलोत्पादन गेंहूँ

फसलोत्पादन

गेहूँ में खरपतवार प्रबंध एवं फसल सुरक्षा 

लेखक द्वय : जय सिंह एवं डा. बी. एन. सिंह
खरपतवार प्रबन्ध (Weed Manegement) 

खरपतवार के पौधे न केवल फसल को दिए गए खाद एवं पानी का उपयोग करते हैं, बल्कि प्रकाश एवम वायु स्थान हेतु फसल के साथ प्रतियोगिता करके उत्पादन को घटा देते हैं। इस प्रकार की उत्पादन में होने वाली कमी पूर्णतः खरपतवार सघनता पर निर्भर करती है। उत्पादन की यह कमी विभिन्न अवस्थाओं में 10-40 प्रतिशत तक हो जाती है। प्रायः फसल के मध्य पारम्परिक रूप से बथुवा, खरथुवा, अंकरी, बनप्याजी, मटरी, हिरनखुरी, सेजी, कटइली, गजरी, कृष्णनील आदि वार्षिक खरपतवार आते हैं। कुछ खेतों में जवासा वायसुरी, कांस, दूब आदि बहुवार्षिक खरपतवार भी उगते हैं। आजकल इन खरपतवारों के अतिरिक्त गेहूँ का माँमा तथा जंगली जई के पौधे भी व्यापक रूप से उगने लगे हैं। उपरोक्त दोनों खरपतवार के पौधे गेहूँ के ही समान होते हैं और प्रारम्भ में इन्हें पहचान पाना कठिन होता है। फसल के बीच उगे खरपतवारों का समय से नियंत्रण करना अत्यन्त आवश्यक है। प्रायः इन्हें बुआई के 30-35 दिन बाद खेत से निकाल देना चाहिए। खरपतवार नियंत्रण में जितना ही विलम्ब होता है उसी के अनुपात में उत्पादन में गिरावट आती है। खरपतवारों के नियंत्रण के लिए यांत्रिक एवम् रासायनिक दोनों विधियों का प्रयोग किया जाता है। यांत्रिक विधियों में मुख्यतः खुर्पी से निराई तथा हाथ से उखाड़ने की प्रथा रही है। आजकल इस विधि में अधिक समय लगने, श्रमिकों के समय पर आवश्यकतानुसार उपलब्ध न होने तथा अधिक खर्चीली होने के कारण इसके स्थान पर रासायनिक विधि का प्रचलन बढ़ा है।

चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार बथुआ, हिनखुरी, बनप्याजी, अंकरी आदि की रोकथाम हेतु 2,4-डी का प्रयोग किया जाता है। 2,4-डी एक शाकनाशी रसायन है जो बाजार में विभिन्न रूपों तथा अलग-अलग व्यापारिक नामों से बिकता है। यह द्रव के रूप में ब्लैडेक्स-जी तथा बीडोर (72 प्रतिशत क्रियाशील तत्व) तथा ब्लैडेक्स सी एवम बीडोन (36 प्रतिशत क्रियाशील तत्व) के रूप में मिलता है। चूर्ण (Powder) के रूप में 2,4-डी टैफासीन एवम् फरनोक्सोन (दोनों 80 प्रतिशत क्रियाशील तत्व) के रूप में उपलब्ध है। उपरोक्त
खरपतवारों को नष्ट करने के लिए टैंफासीन अथवा फरनोक्सोन की 625 ग्राम मात्रा को 400-500 लीटर पानी के साथ घोलकर बोने के 30-35 दिन बाद छिड़काव करना चाहिए। इस कार्य हेतु ब्लैडेक्स-सी को 1.4 लीटर तथा ब्लैडेक्स-जी तथा बीडोर को 700 ग्राम मात्रा प्रति हे. खेत में छिड़काव हेतु पर्याप्त हो। छिड़काव हेतु पानी की मात्रा को स्प्रेयर की क्षमता के अनुसार 900 ली./हे. तक बढ़ाया जा सकता है। 
 रसायनों का मृदा-प्रयोग (Soil application) 

पहली सिंचाई के बाद जब फसल 5-6 पत्तियों की हो तथा खेत में पैर न धँसे, कर देने से अधिक लाभ होता है।
खरपतवारों के नियंत्रण हेतु शाकनाशी का प्रयोग गेहूँ की फसल बोने के 45 दिन के बाद नहीं करना चाहिए। इसके दो प्रमुख कारण हैं

(1)   इस अवस्था तक खरपतवार फसल का पर्याप्त नुकसान कर चुके होते हैं एवं खरपतवार के पौधे अधिक कड़े हो जाते हैं जिन्हें नष्ट करने के लिए अधिक मात्रा में शाकनाशी पदार्थों का प्रयोग करना पड़ता है।

(2)    इस प्रकार विलम्ब से अधिक मात्रा में शाकनाशी के प्रयोग के कारण गेहूँ की कुछ प्रजातियों की बालियाँ ऐंठी तथा टेढ़ी निकलती हैं, जिनमें दानें कम बैठते हैं तथा टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं। इस प्रकार न केवल उत्पादन में कमी आती है, बल्कि ऐसे गेहूँ का भाव भी गिर जाता है।
गेहूँ-धान फसल-प्रणाली में गेहूँ का मामा तथा जंगली जई, जिनके पौधे गेहूँ के ही समान होते हैं, आजकल की प्रमुख समस्या है। प्रारम्भिक अवस्था में इनकी पहचान कठिन होती है। इनका प्रमुख अंतर सारणी 1 में दिया गया है। ये सामान्यतया तृणनाशी (2,4-डी) के प्रयोग से नष्ट नही हो पाते, उन्हें ट्रिब्यूनील, डोसानेक्स, आइसोप्रोटोयूरान, मेथाबेजथायोजुरान आदि का प्रयोग करके नष्ट किया जा सकता है। इस कार्य हेतु आइसोप्रोटोयूरान का 50 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण उपलब्ध होने पर 1.5 किग्रा./हे. मात्रा तथा 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण उपलब्ध होने पर 1 किग्रा./ हे. मात्रा एवम् मेथाबेजथायोजुरान की भी उपरोक्तानुसार मात्रा को 500-700 लीटर पानी के साथ छिड़काव कराना चाहिए। इन
खरपतवार नियंत्रण हेतु अनेक दृष्टियों से रासायनिकों के प्रयोग को हतोत्साहित करना वर्तमान समय की मांग है। अतएव शाकनाशी का प्रयोग अन्तिम विकल्प के रूप में किया जाना चाहिए यद्यपि अधिक श्रम-साध्य एवम् महंगी होने के कारण मानवीय श्रम एवं यांत्रिक विधियों द्वारा खरपतवार नियंत्रण में भी कई प्रकार के बाधावरोध हैं। अतएव खेतों में खरपतवारों के घनत्व को कम करने के उद्देश्य से पूर्ण सड़ी एवं खरपतवार के बीजरहित जीवाणुनाशक खादों एवम् स्वच्छ बीजों का प्रयोग खरपतवार नियंत्रण में सहयोगी फसल-प्रणाली को अपनाना, स्टेल सीडबेड तैयार कर फसल की बुआई करने के साथ ही अन्य बचावकारी (Preventive) उपायों पर अमल करना चाहिए।
फसल सुरक्षा (Crop Protection)

गेहूँ की फसल से अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिए उसे रोगों एवम् कीट-पतंगों से बचाना आवश्यक है। गेहूँ की फसल को कई रोग एवम् कीट नुकसान पहुँचाते हैं, जिनसे उत्पादन में भारी कमी आ जाती है। फसल में रोग-व्याधियों का प्रकोप वातावरण के अनुसार प्रतिवर्ष घटता-बढ़ता रहता है। गेहूँ के कुछ प्रमुख रोग निम्न हैं

(1) रोग नियंत्रण (Disease Control)

(1) गेरूई रोग (Rust )

(अ) भूरी गेरूई (Brown Rust)

यह रोग पक्सीनिया रिकोन्डेटा ट्रिटिसाई फँफूद से होता है। रोग का प्रकोप होने पर पत्तियों पर भूरे रंग के गोल फफोले दिखाई पड़ते हैं, जो बाद में पूरी पत्ती पर बिखरकर घने हो जाते हैं। रोग के अधिक प्रकोप होने पर फसल समय से पहले पक जाती है तथा उपज में भारी कमी आ जाती है। गेरूई का प्रकोप विशेष रूप से गर्म व आर्द्र जलवायु में तेजी से फैलता है। इस रोग का प्रकोप प्रायः सम्पूर्ण भारत में होता है।

(ब) पीली गेरुई (Yellow Rust)

यह रोग पक्सीनियाँ स्ट्राइफार्मिस नामक फफूँद से होता है। रोगग्रस्त पत्तियों पर कतारों में गोल या अंडाकार हल्के पीले धब्बे बन जाते हैं तथा रोग के गम्भीर प्रकोप होने पर इसके लक्षण पर्णवृत्त, तने और बालियों पर भी दिखाई पड़ते हैं। गेरूई की अन्य किस्मों की अपेक्षा यह किस्म कम तापक्रम पर फैलती है। अतः मैदानी भागों की अपेक्षा पर्वतीय प्रदेशों में इसका अधिक प्रकोप पाया जाता है। कम तापक्रम पर फैलने के कारण इसका प्रकोपहोत कम होती

(स) काली गेरुई (Black Rast)

मस ट्रिटिनाईन पद द्वारा होता है। इसमें काले रंग के कर उसरे धबे पत्तियों तालियों पर प्रकट होते हैं। पहले पर दिखाई पड़ते हैं जो बाद में पतियों के किनारों पर आपस में मिलकर लम्बे दिखाई पढ़ते हैं इसका प्रकोप सम्पूर्ण देश में पाया जाता है। यह अपेक्षाकृत गर्म वातावरण में अधिक व्यापक रूप से फैलता है। महामारी की अवस्था से लेने पर पूरा पौधा सूख जाता है।

रोकथाम (Control)

(1) गेरुई प्रतिरोधी किस्मों की बुआई की जाय तथा सम्पूर्ण

(2)  कृषि क्षेत्र में गेहूं की कई किस्मों की बुआई की जाय विलम्ब से बोई जाने वाली फसल में इस रोग का अधिक प्रकोप होने के कारण देर से पढ़ने वाली दीर्घकालिक प्रजातियों की बुआई न की जाया

(3)  अधिक नवजन प्रदान करने वाली खादों के प्रयोग से गेरुई का प्रकोप बढ़ता है तथा पोटाश के प्रयोग से इसके विस्तार में कमी आती जाती है। अतएव संतुलित उर्वरको का प्रयोग करना चाहिए।

(4)  खड़ी फसल में रोकथाम के लिए मैंगनीज कार्बोमेट 2 किया या 80 प्रतिशत जीरम 2 किग्रा. या 75 प्रतिशत जिनबे की 2 किया, मात्रा प्रति हेक्टर की दर से 600 800 लीटर पानी का छिड़काव करना चाहिए। अधिक प्रकोष होने पर 10-15 दिन के अंतर पर पुनः छिड़काव कर देना चाहिए।

(2) कण्डुआ रोग (Loose Smut)

यह रोग अस्टिलागो न्यूडा ट्रिटिसी नामक फफूँद से उत्पन्न होता है तथा यह एक बीजजनित रोग है। इस रोग का प्रकोप होने पर स्वस्थ बालियों के स्थान पर रोगी बालियों निकलती है जो सफेद रंग की झिल्ली से ढँकी रहती हैं। झिल्ली के बाद में फटने से बालियों में दानों के स्थान पर काले रंग का चूर्ण भरा रहता है। बालियों में उपस्थित यह चूर्ण झड़कर दूसरी बालियों पर फैलता रहता है।

रोकथाम (Control)

(1)  रोगरोधी किस्मों की बोआई करनी चाहिए।
(2) बुआई के पूर्व बीज का शोधन करना चाहिए। बीज शोधन हेतु कार्बेन्डाजिम अथवा कार्बोक्सीन या बीटावेक्स की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपयुक्त है।

(3)  रोगी पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए ताकि रोग के फैलाव से बचा जा सके।

(4) मई के महीने में रोगी फसल से उत्पन्न बीज को चार घंटे पानी में भिंगोकर पतली परत फैलाकर तेज धूप में सुखाने से जीवाणु मर जाते हैं। सुखाने के बाद भण्डारण से पूर्व एक भाग थाइराम 500 भाग बीज में मिला लेना चाहिए।

(3) सेंहूं रोग (Ear Cockle)

यह रोग सूत्रकृमि (एक्विनाट्रिटिसी) द्वारा फैलता है। प्रभावित पत्तियाँ टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती हैं तथा उनमें गोल कत्थई, रंग की रचनाएँ बन जाती हैं। बालियाँ छोटी बनती हैं तथा इनमें दाने के स्थान पर सूत्रकृमि की छोटी-छोटी भूरी या काली गाँठे पड़ जाती हैं। बालियों में एक गोंद जैसा चिपचिपा पदार्थ भी पाया जाता है।

रोकथाम (Control)

(1) रोग रहित फसल का बीज ही बुआई हेतु प्रयोग करना चाहिए।

(2)  बीज को 20 प्रतिशत नमक के घोल में डुबाने से रोगी दाने व गांठें पानी में तैरने लगती हैं, जिन्हें छानकर नष्ट कर देना चाहिए। बीज को दो-तीन बार पानी में भिंगोकर छायादार स्थान पर सुखाकर बुआई करनी चाहिए।

(3) जिन खेतों में रोग लगा हो, उन्हें फसल की कटाई के बाद पलेवा करके जोत देना चाहिए तथा गर्मी भर खुला छोड़ देना चाहिए।

(4)  झुलसा रोग (Alternaria Blight)

गेहूँ का यह रोग आल्टरनेरिया ट्रिटिसिना नामक फफूँद से उत्पन्न होता है। इसमें पत्तियों पर पीले अथवा काले फफोले पड़ जाते हैं, जो बाद में पूरी पत्ती पर दिखाई देते हैं। आल्टरनेरिया झुलसा
रोग में कुछ पीले व कुछ भूरापन लिये हुए गोलाकार धब्बे पहले निचली पत्तियों पर दिखाई पड़ते हैं। ये धब्बे बाद में किनारों पर कत्थई व भूरे रंग के तथा बीच में हल्के भूरे रंग के हो जाते हैं।

रोकथाम (Control)

इसकी रोकथाम गेरूई की ही भाँति की जाती है।

(5)  करनाल बंट (Karnal Bant) नमोस इंडिका नाम से होता है। इस रोग के प्रकोप हो यद्यपि उपज में कोई खास टि नहीं आती, परंतु दाने की होती है। रोगी दानों में ईमाईल एमीन की उपस्थिति के कारण एक विशेष प्रकार की तरह की दुर्गंधती है, जिससे दाना खाने योग्य नहीं रह जाता है। ऐसा पाया गया है कि गेहूँ में 3 प्रतिशत से अधिक वाने में इसका प्रयोग रहने पर खाने योग्य नहीं रह आता है।

इस रोग का प्रकोप केवल दोनी पर होता है। दानों पर एक सुरंग सी बन जाती है और उसमें काले रंग का चूर्ण भर जाता है, किन्तु कुछ विशेष असामान्य स्थिति को छोड़कर पूण जीवित और अंकुरण योग्य बना रहता है। इस रोग का प्रकोप समस्त पौधे पर न होकर एक ही पौधे की कुछ बालियों तथा एक बाली के कुछ बानो पर ही पाया जाता है। यह एक बोजनित रोग है।

रोकथाम (Control)

(1)  इसकी रोकथाम हेतु रोगरोधी किस्मों की बुआई करनी चाहिए तथा रोगपसित खेत में दो वर्ष तक गेहूँ की बुआई नहीं करनी चाहिए।
2)  कंडुआ रोग के ही समान बीज को नमक के पानी में भिगोकर धूप उपचार तथा खेत की जुताई करके गर्मी में खुला छोड़ देना चाहिए।
(3) गेहूँ के खेत में अधिक सिंचाई विशेष रूप से पुष्पवा के बाद सिंचाई नहीं करनी चाहिए।
(4) कंडुआ के ही समान बुआई के पूर्व बीज का उपचार कर तेना चाहिए।
(5) टिल्स 25 ई.सी. का 500 मिली. / हे. की दर से बाली आते समय छिड़काव करना चाहिए।

(6) चूर्ण फफूंदी (Powdery mildew)

यह रोग हरिसिफी पैमिनिस ट्रिटिसी नामक फ्यूँद द्वारा उत्पन्न किया जाता है। इसके लक्षण पत्तियों, पर्णवृत्त एवम् स्पाइकिकाओं दिखाई पड़ते हैं। इसमें पौधों पर भूरे रंग का चूर्ण पाया जाता है, जो धीरे-धीरे पूरी पत्ती एवं वाली को ढँक लेता है। बाद में पत्तियों का रंग पीला या कत्थई हो जाता है तथा वे सूख जाती है।

रोकथाम (Control)

(1) रोग के प्रभाव की आशंका वाले क्षेत्रों में रोगरोधी किस्मों
की बुआई करनी चाहिए। 
(2) रोगग्रसित खेतों में 20-30 किग्रा./हे. की दर से गंधक के चूर्ण का छिड़काव करना चाहिए।

(3)करोथेन 80 डब्लू पी. (75 ग्राम) और डाई-इथेन एम-45 (925 ग्राम) के मिश्रण के 0.2 प्रतिशत घोल का 10-15 दिन के अंतर पर 3-4 बार छिड़काव करने से इस रोग की रोकथाम की जा सकती है। इसके अतिरिक्त बेनेमिल अथवा सल्फेक्स का 0.2 प्रतिशत घोल के छिड़काव से भी रोग पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

(4)  रोगी पौधे के अवशेषों को जला देना चाहिए। (ब) कीट-नियंत्रण (Pest Control)

दीमक (Termites)

(1) दीमक भूमि के भीतर सुरंग बनाकर रहता है तथा जड़ों के पास से तनों को खा जाता है, जिससे पौधा सुख जाता है। इसकी रोकथाम हेतु एल्ड्रिन 5 प्रतिशत, हैप्टाक्लोर 3 प्रतिशत या क्लोरोडोन की 5 प्रतिशत धूल का 20-30 किग्रा./हे, की दर से बोने से पहले कूड़ों में प्रयोग करना चाहिए।

(2) गुझिया धुन (Gujhiya Weevil)

यह अधिकतर गेहूँ, जौ, मटर व चने की फसल पर आक्रमण करती है। इसका प्रकोप बीज जमने के तुरन्त बाद प्रारम्भ हो जाता है। अक्टूबर-नवम्बर में सर्वाधिक प्रकोप पाया जाता है। यह कीट पौधे को जमीन के नीचे से काट देता है तथा पौधे के बड़े होने पर जमीन के ऊपर भी आकर काट लेता है। दीमक की रोकथाम हेतु प्रयोग की जाने वाली दवाओं से इसकी रोकथाम हो जाती है।

(3) माहू, वायरआर्म, आर्मीवार्म, बालदार गिडार आदि 

     गेहूँ की फसल में इनके अतिरिक्त अनेक प्रकार के कीटों का प्रकोप होता है जो या तो पत्तियों को खा जाते हैं, पौधों को काटकर गिरा देते हैं अथवा उनसे रस चूसकर उन्हें शक्तिहीन एवम निर्जीव बनाकर उत्पादन घटा देते हैं। इस प्रकार इन कीटों का नियंत्रण अत्यंत आवश्यक होता है। इनकी रोकथाम निम्न प्रकार से की जा सकती है

(1) फोलिथियान 500 सी.सी. या थायोडान 1 लीटर या इकालुक्स 25 ई.सी. डेल्टामिथ्रिन, फेनावलरेट तथा 1लीटर का 800 लीटर पानी के साथ प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
(2) कार्बाइल (सेविन 50 डब्लू.पी.) की 2.5 किग्रा./हे. की दर से 800 लीटर पानी में छिड़काव करना चाहिए।

(स) चूहों पर नियंत्रण (Mouse Control)

   चूहे खेत और खलिहान दोनों ही स्थानों पर गेहूँ के दाने कर क्षति पहुँचाते हैं। अतः इनका नियंत्रण करने के लिए चूहों सारी बिलों को संध्या के समय बंद कर देना चाहिए तथा प्रातःकाल निरीक्षण करने पर जो बिले पुनः खुली दिखाई दें, उनमें चाहिए। इसके उपरान्त भी यदि खेत में चूहे दिखाई पड़े तो चूहे मारने की दवा (रैटाफिन) की गोली के रूप में जगह-जगह बिलों के पास रख देना चाहिए। इसके लिए 1 भाग कुमारिन 19 भाग गेहूँ या मक्का का आटा + 1 भाग शीरा + 1 भाग सरसों का तेल लाकर दवा बनाई जाती है।

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